सोशल मीडिया पर क्यों लिखना चाहिए?

कुछ लोगों का कहना है कि सोशल मीडिया पर लिखने का क्या फायदा।

मेरा अपना अनुभव रहा है…

इस सोशल मीडिया से पता चला कि दूरदराज में बैठे लोग भी कितना अच्छा लिख रहे हैं।

कितनों को इसकी वजह से किताब छपवाने का अवसर मिला। जैसे शैलजा पाठक बहुत अच्छा लिखती हैं, हम सब उनके लिखने का इन्तजार करते हैं। उनकी रचनाओं को राजकमल ने मांगकर छापा। ये उनकी पहली किताब है पूरब की बेटियां।

इसी तरह रूपम को हम नहीं पढ़ पाते थे। ये भी कह सकते हैं कि इतने लोगों तक उनकी कविताएं नहीं पहुंच पाती थीं। सोशल मीडिया से दूर दूर तक पहुंची, संग्रह भी आ गया और तमाम मंचों पर बुलाया जाने लगा ।

सोनी पांडेय को भी हम सोशल मीडिया से ही जाने, बलम कलकत्ता पर मेरा रंग लाइव में बातचीत भी किये। उनकी किताब छपी चुकी थी पर सोशल मीडिया से ज्यादा लोगों तक पहुंची। जाने कितने ऐसे लोग हैं जिन को फायदा हुआ सोशल मीडिया से।

जिन लेखकों को नहीं जानते थे उन्हें जानने लगे, जिनको जानते थे उनको और अच्छे से जानने लगे।

ममता सिंह और मृदुला शुक्ला के स्कूल के बारे में सोशल मीडिया के माध्यम से जान पायें कि किस तरह ये लोग अपने स्कूल और बच्चों का ख्याल रखती हैं। कितना समर्पण है इनका।

मेरी रात मेरी सड़क कैंपेन सोशल मीडिया की वजह से ही सफल हुआ । एक साथ 18 शहरों को जोड़ पाये थे, हम सब एक ही समय 12 अगस्त को 9 बजे सड़क पर थे। हमारे पहुंचने से पहले मीडिया वाले मित्र इन्तजार कर रहे थे। हम लगातार इस पर बात करते रहे। मेवाड़, आक्सफोर्ड, आईआईटी, गंगोत्री कालेज गोरखपुर में इस पर चर्चा के लिए बुलाया गया।

ये सोशल मीडिया के वजह से ही सम्भव हो पाया हम इन जगहों पर पहुंच पाये।

मी टू कैंपेन भी सोशल मीडिया से ही आगे बढ़ा कितने लोग पकड़े गये, कितने लोगों का नाम उजागर हुआ, कितनों को सजा मिली, कितनों का सोशल बहिष्कार हुआ। इस कैंपेन के बाद पुरुषों में थोड़ा डर तो पैदा हुआ कि कहीं कोई लड़की शिकायत न कर दे।

सोशल मीडिया ने ही मुज्जफरपुर, कठुआ, हाथरस, मणिपुर कांड और जाने कितने मामले को उठाया नहीं तो मीडिया तो ऐसी खबरें दबा ही देता है।

सोशल मीडिया नहीं होता तो मेरा रंग की नींव भी नहीं पड़ती। ये आइडिया सोशल मीडिया से ही आया। और आज जो हमारे साथ हैं जिनके बिना काम करना सम्भव नहीं होता वो सभी करीब करीब यहीं से मिले।

वार्षिक कार्यक्रम में बहुत से दोस्तों को यहीं से जानकारी मिलती है। ऐसे तमाम कार्यक्रमों की जानकारी यहां से मिल जाती है, जो हमारे WhatsApp पर नहीं आ पाते।

कितने युवा लेखक मिले, कितने सीनियर मिले, कितने मित्र मिले जिनसे वर्षों से बात नहीं हो पाई थी, वो भी मिल गये। सोशल मीडिया ने कितने तरह के विचारों से अवगत कराया।

अभी हम जितने लोगों के बारे में जानते हैं अखबार मैगजीन में पढ़कर नहीं जान पाते। यहां से ही हम सब जानते हैं कि कौन किस विचारधारा से जुड़ा है । उससे उसी तरह की दोस्ती में दूरी नजदीकी तय करते हैं।

सोशल मीडिया नहीं होता तो कोविड काल में हम पगला जाते। इसने सेहत और मेंटल सेहत दोनों को ठीक रखने में अहम भूमिका निभाया। हम सब लोगों की सहायता कर पाये। चाहें वो दवा हो, राशन हो,आक्सीजन सिलेंडर हो, आक्सीमीटर हो, अस्पताल में बेड हो, मृत्यु के बाद नगर निगम की सहायता हो; सब सोशल से सम्भव हो पाया। जिनके पास नम्बर नहीं था उन्होंने यहीं से बात बातचीत की।

हम लाइव कार्यक्रम किए, इससे लोगों का मानसिक तनाव कम हुआ। लोग लाइव का इन्तजार करते थे। अपने सवाल पूछते थे कभी कभी कार्यक्रम में किसी गड़बड़ी पर भी बताते थे। अनिल प्रभा दी कहती थी हम हम रात को जागकर लाइव देखते हैं ये सब सोशल मीडिया का देन है कि हम मुसीबत में भी साथ बने रहें।

ऐसे जाने कितने लोग थे जो सोशल मीडिया की वजह से मशहूर हुए।

यहीं पर हम इन्तजार करते हैं कनुप्रिया,सुजाता चोखेरबाली और निवेदिता झा जैसे तमाम दोस्तों के पोलिटिकल और स्त्रीवादी पोस्ट का। रवीश कुमार और अजीत अंजुम जैसे ईमानदार चैनल भी हम यहीं पर देख पाते हैं ।

इस समय भी एक कवि द्वारा एक लड़की पर किए गये अभद्रता को सोशल मीडिया ने ही उठाया। Nivedita Jha के पोस्ट सी पता चला फिर बहुत से लोग आये लड़की के सपोर्ट में। मेरा रंग ने भी चिट्ठी भेज कर नई धारा से जवाब मांगा है।

कितनी लड़कियों महिलाओं ने अपने पर हुए जुल्म की बातें बताईं और उन्हें यहां से सपोर्ट भी मिला।

सबसे महत्वपूर्ण हर स्त्री को पहचान दिलाया जो पढ़ लिख रही थीं। कुछ अपना रोजगार करना चाह रही थीं, उनके रोजगार को भी यहां से प्रोत्साहन मिला। कभी कोई आर्थिक रूप से परेशान हुआ तो यही से आर्थिक सहायता का भी अपील किया और सहायता मिली।

जाने कितने दोस्त बने जो दुःख सुख में साथ खड़े होते हैं।


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