उसने कहा- मैं आऊँगी। और तब मुझे लगा, मेरी अब तक की तमाम ज़िंदगी उसकी हाँ का इंतज़ार ही तो थी!

बहुत मान-मनौव्वल के बाद उसने हाँ कहा था। बहुत अरसे से मैं आग्रह कर रहा था कि एक दिन समय निकालकर मेरे घर आओ। मैं उसे बरसों से जानता था, लेकिन बात कभी जब-तब की टेलीफ़ोन-वार्ता से आगे नहीं बढ़ सकी थी। टेक्स्ट मैसेजेस में अकसर मैं कोमल अहसास बयाँ करता, लेकिन उसमें एक क़िस्म की परदेदारी होती है। उसकी ओट में आप कुछ भी कह सकते हैं। किंतु मजाल है, जो वही बात आप आमने-सामने कहकर दिखाओ।

कभी-कभी रास्ते चलते उससे भेंट हो जाती तो पल-दो पल को बात हो लेती। कहीं किसी जलसे में दिख जाती तो एक फ़ौरी क़िस्म की दुआ-सलाम। लेकिन ऐसा ना होता कि घड़ीभर कहीं बैठकर उससे इत्मीनान से बातें हों। उससे कितनी तो बातें मुझे कहनी थीं। और बातों को कहने के लिए एक हाशिया चाहिए, एक तनहाई, एक वक़्फ़ा, एक कमरा। दुनिया की नज़र से घड़ी भर को ओझल हो जाने का करतब।

इससे पहले एक बार वो मेरे कमरे पर आई थी। आध घड़ी औपचारिक बातें होती रहीं। चाय पी गई। मैंने उसे अपनी किताबों की आलमारी दिखलाई। अपनी तस्वीरों का अलबम। फिर कहा, “देखो ये दीवारें हैं, ये छत है, ये खिड़की।” वो खिलखिला पड़ी। “तो क्या? ये तो सभी घरों में होती हैं।” मैं जवाब में मुस्करा भर दिया। मैं भला कैसे कहता कि इन दीवारों, इन खिड़कियों से पूछो। इस कमरे में तुम्हारे होने का क्या मतलब है, ये इस कमरे से पूछो। यह एकान्त से भरा रहता है। और मेरे होने से। मेरे और इसके एकान्त में तुम्हारे होने से सुंदर बाधा कोई दूसरी नहीं।

उसने उस दिन सफ़ेद लिबास पहना था। जब संध्या ढल गई, तब भी कमरे की बत्तियाँ जलाई नहीं गईं। बीत रहे दिन में एक हलकी-सी उजास बाक़ी थी। वह उसके लिबास का गहना बन गई। उसने कहा, अच्छा बहुत देरी हुई, अब चलती हूँ। मैंने चला, चलो तुम्हें सड़क तक छोड़ आऊँ। हम दोनों कुछ देर चलते रहे। मैंने स्वयं से कहा, “वो अभी मेरे साथ है। वो यहाँ है। वो साँसें ले रही है। यह सच है। अगले मोड़ से उसे घर लौट जाना है। तुम्हें लौट आना है, अपने कमरे पर, जो अब पहले से ज़्यादा अकेला हो जाएगा!”

मैंने मुस्कराकर उसे विदा कहा- “इस शाम के लिए शुक्रिया।” उसने सदाशय मुस्कान के साथ हाथ हिलाया और लौट गई। मैं अपने कमरे पर चला आया। मुझे लगा मैं मिलेना का काफ़्का बन गया हूं। काफ़्का मिलेना से प्रेम करता था, किंतु मिलेना वियना में रहती थी, और काफ़्का प्राग में रहता था। दोनों मिल नहीं सकते थे। एक दिन काफ़्का ने मिलेना को ख़त लिखा और कहा, “पता है आज मैंने वियना का एक नक़्शा देखा। एकबारगी तो मैं समझ ही नहीं पाया कि उन्होंने इतना बड़ा शहर किसलिए बनाया, जबकि मिलेना के लिए तो एक कमरा ही बहुत था।”

मिलेना के लिए ही नहीं, काफ़्का के लिए भी। दुनिया में जो भी प्यार करता है, उसके लिए भी। प्रेमियों को दुनिया नहीं चाहिए, बस एक छोटा-सा कमरा चाहिए। ये एक नन्ही-सी आरज़ू होती है। लेकिन दुनिया में इससे नामुमकिन कुछ और नहीं।

उस रात मैंने बहुत गझिन मन लेकर उसको मैसेज किया- “आज तुम आईं, कितना अच्छा लगा। अभी मैं ठीक वहीं बैठा हूँ, जहाँ तुम थीं। मैं तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी के साथ इस कमरे में रह रहा हूँ और भीतर से साँकल लगी है। कल तक ये मेरा कमरा था, आज ये मुझे कितने संकोच से भरता है। यह सब कितना आश्चर्य जगाने वाला है।” बदले में उसकी एक मुस्कराहट लौट आई।

उस दिन को बीते कोई छह-सात महीने होने को आए कि अब जाकर उसने फिर हाँ कही थी। मेरे लिए यह उत्सव से कम नहीं था। इससे अधिक सुंदर कल्पना मैं कोई दूसरी नहीं कर सकता था कि वो एक बार फिर मेरे कमरे में होगी। शाम चार बजे का समय तै हुआ था। मैं बाज़ार जाकर मिठाई, मठरियाँ, बिस्किट ले आया। पूरा कमरा बुहार दिया। गुलदान ठीक कर दिए। नई चादर बिछाई। तकियों के खोल बदले। किताबें करीने से सजा दीं। फिर देर तलक अपने घर को निहारता रहा, मानो इसमें रत्ती-तोला-माशा की भी कमीबेशी रह गई तो ग़ज़ब हो जाएगा। कुछ टूट जाएगा। एक अधूरापन फिर ताज़िंदगी खटकेगा। उसे फिर दुरुस्त नहीं किया जा सकेगा।

चार बजने में पंद्रह मिनट की देरी थी कि अब मैं घर के भीतर नहीं रह सका। मुझे लगा, मैं भीतर से भर गया हूँ। मैं दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया। चार बजा। चार बजकर दस मिनट हुआ। फिर सवा चार। फिर चार बीस। पता नहीं, वो कहाँ रह गई। मैंने फ़ोन उठाकर उसे मैसेज किया- “मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।” कोई जवाब नहीं आया। मेरा दिल बेचैन हो गया। अब मैं गली के मुहाने पर जा खड़ा हुआ, जैसे इतने भर से वो वहाँ चली आएगी। पौने पाँच बज गया, वो नहीं आई। साँझ ढलने लगी। रौशनी का जादू छीजने लगा। अगर उसने पंद्रह मिनट और देरी की तो वह माया छिन्न-भिन्न हो रहेगी, जिसके आलोक में उसे क़रीब से निहारने के लिए कितनी मन्नतें मैंने माँगी थीं, कितने दिन रास्ता देखा था। “अब भी देर नहीं हुई है, प्लीज़ अब भी चली आओ”- मैंने मन ही मन कहा।

पाँच, फिर सवा पाँच। अब मैं मुख्य सड़क पर जा खड़ा हुआ। उस शाम मैं इसी चौरस्ते तक उसे छोड़ने आया था। मेरा समूचा अस्तित्व सिमटकर एक ही इच्छा में आ सिमटा- “बस आज की शाम तुम आ जाओ। ये मेरे जीवन की अंतिम संध्या नहीं है, ना तुम्हारे जीवन की, लेकिन सबकुछ इतना असम्भव है कि वह एक बार होकर फिर दूसरी बार नहीं होता। मैंने इस शाम से अपनी नियति को जोड़ लिया है। थोड़ी देर को ही चली आओ। अभी कहीं से चमत्कार की तरह दिखलाई दो और मुस्कराकर मेरे साथ चल दो।”

पर वो नहीं आई। मेरा दिल डूबने लगा। बायपास रोड की तरफ़ से एक ट्रक-डम्पर एक कंस्ट्रक्शन साइट पर आकर रुका। उसमें गिट्‌टी-रेत लदी थी। उसका पल्ला खुला। रेत-गिट्‌टी बिखर गई। मैं अपलक उस दृश्य को देखता रहा। मुझे लगा जैसे मैं ख़ुद रेत का एक टीला बन गया था!

वो नहीं आई थी! उसने इत्तेला करना भी ज़रूरी नहीं समझा था कि मैं नहीं आ सकूँगी। उसने मैसेज का जवाब भी नहीं दिया। मैं लौटकर घर नहीं जाना चाहता था। मुझे उस गुलदान से शर्म आ रही थी, जिसे मैंने करीने से सजाया था। मैं चाय की प्याली से आँख बचा लेना चाहता था। मैं अपने कमरे के दरवाज़े पर घुटनों के बल गिरकर उससे माफ़ी माँगना चाहता था और फूट-फूटकर रोना चाहता था। मैंने उन सबसे एक ख़ूबसूरत वादा किया था, लेकिन मैं वादा पूरा नहीं कर पाया था।

इस बात को फिर बहुत दिन बीते। एक दिन वह मुझे दिखलाई दी। मैंने हाय कहा। उसी ने आगे रहकर कहा, “उस दिन तुम रास्ता देखते रहे होंगे ना? मेरा भी बहुत मन था आने का, लेकिन दोपहर चढ़ते-चढ़ते मुझे बुख़ार हो आया। दवाइयाँ लेकर सो रही। सोचा था चार बजे तक जाग जाऊँगी, लेकिन नींद ही नहीं खुली। पूरी शाम सोती रही। रात नौ बजे आँख खुली तो तुम्हारा ख़याल आया। तुम्हारे मैसेजेस देखे। मारे संकोच के जवाब देते ना बना। मैंने सोचा नहीं था तुम इतना इंतज़ार करोगे।”

मैं चुपचाप सुनता रहा। उसकी तमाम बातें अपनी जगह सही थीं। सिवाय इसके कि “मैंने सोचा नहीं था, तुम इतना इंतज़ार करोगे!” मुझे लगा, मेरा वजूद बहुत हलका हो गया। तराज़ू के दूसरे पलड़े ने मुझे बे-बहर कर दिया है। मैं बेतुका हो गया हूँ। चीज़ों के मायने नहीं रह गए थे। शिक़ायत करने का भी दिल नहीं रह गया था। शिक़ायत करने का भी एक अधिकार होता है। जो यह कहता हो कि मैंने सोचा नहीं था तुम रास्ता देखोगे, उससे भला कोई किस हक़ से रूठे!

फिर कभी उससे वैसे मिलना ना हुआ। बहुत, बहुत सालों के बाद एक बार उसे देखा। सच में नहीं, तस्वीर में। अब वो ब्याहता थी। तस्वीर में वह सुखी, संतुष्ट, निश्चिंत दिखाई देती थी। मैं जानता था कि उसने प्रेम के बिना विवाह किया है, लेकिन इससे बड़ा रंज मुझे यह था कि उसे इसका अभाव कभी खटका नहीं था। मैं तस्वीर में उसे देखता रहा। फिर उस आदमी को देखा, जिसके साथ वह थी। उसके चेहरे को मैंने ग़ौर से निहारा। औेर ख़ुद से पूछ बैठा-

इतनी निष्ठा और इतनी प्रतीक्षा, इतने रंज और इतनी तमन्नाओं के बावजूद जिसके साथ एक घड़ी चुपचाप बैठने का अधिकार भी मैं हारकर हासिल नहीं कर सका था, उसके साथ पूरा जीवन बिताने की पात्रता इस अनजान आदमी ने भला किस हक़ से पा ली थी?


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