वो नाम, जो अदबी हलकों (साहित्यिक दायरों) में किसी काँच की चूड़ी की तरह चमकता भी है और ज़रा सा झटके में बज उठता है। जो किसी औरत की हँसी में छुपी हुई करारी तंज़ की धार भी है और बरसों से दबे हुए रंज़-ओ-ग़ुस्से की ख़ामोश आग भी। जिनकी तहरीरें अंदर ऐसे उतरती हैं जैसे लंबी तपिश के बाद पहली बारिश; मिट्टी महकती है और साथ ही कीचड़ भी उभर आता है।

यही उनकी सच्चाई है, यही उनका फ़न है। मैं उन्हें सिर्फ़ उस्तानी या अफ़सानानिगार नहीं मानती; वो मेरे लिए एक मुक़म्मल मौसम हैं, जहाँ हर औरत ख़ुद को पहचान रही है।

इस्मत…..इस्मत चुगताई….इस्मत आपा!

उनकी ज़िंदगी की रूदाद किसी एक शहर की नहीं, कई मकानों, कई चौखटों, कई रिवायतों की है। सरकारी घरों के तबादलों में पलती-बढ़ती एक ऐसी लड़की, जिसे क़िताबें सिर्फ़ रटाने के लिए नहीं, भड़कने के लिए मिलीं। ख़ुद की आग भड़काने का सामान हुआ। घर, आँगन की नसीहतें थीं, मुआशरे (समाज) की पुलिस थी और सतह पर तहज़ीब का मुलायम रेशम। मगर इस्मत आपा ने उसी रेशम में छुपी वह चुभन महसूस की, जो औरत की नसों में सदियों से दौड़ती आई है।

उन्होंने पढ़ाई को सजावट नहीं बनने दिया, उसे औज़ार बना लिया…..और फिर उस औज़ार से परदे के भीतर का अँधेरा चीरा। ऐसा अँधेरा, जिसकी घुटन में अनगिन साँसें बेजान सी पड़ी थीं। शादी, दोस्तियाँ, बहसें, अदबी हल्क़ों के गिर्द जमती महफ़िलें…..सब कुछ अपनी जगह…..मगर उनकी असल रग-ए-हयात (जीवन का आधार) वो बाग़ी कलम बनी, जो किसी दर्स-ओ-तदरीस (पढ़ना–पढ़ाना) की पीठ पर नहीं, ज़िंदगी की कँटीली डाल पर धारदार हुई।

मैं जब ‘लिहाफ़’ को याद करती हूँ, तो मुझे सिर्फ़ इक क़ाबिल-ए-इख्तिलाफ़ (विरोध के योग्य), हंगामाखेज़ मुहिम नहीं, एक बेहद मासूम आँखों की गवाही दिखती है। एक बच्ची की निगाह जो इशारतन देखती है और उस इशारे में पूरी इक कायनात हिलती है, जिसमें बेग़म जान की तनहाई, रब्बो के हाथों की गरमाहट, चादर की सलवटें और ख़ाली बिस्तरों की सदा है।

इस्मत आपा ने यहाँ किसी फ़तवे की ज़ुबान नहीं बोली। उन्होंने कमरे की हवा को सुनाया, दीवारों के रँग में छिपे राज़ को छुआ। ये अफ़साना बेबसी के पलंग पर ख्वाहिशात की धड़कन रख देता है और मुआशरे की आँख पर बँधी पट्टी को थिर-थिर कर देता है। जब लोग उन पर मुक़द्दमे लाद रहे थे, वो दरअसल अपनी ही साँसों से डर रहे थे।

इस्मत ने इबारत में शरारत भी रखी, शराफ़त की पोल भी खोली और सबसे बढ़कर औरत की ख़ामोश ज़बान को लफ्ज़ दे दिये…..ऐसे अल्फ़ाज़ जो आज भी सुनाई देते हैं, चाहे कोई कितना ही धीरे पढ़े।

‘टेढ़ी लकीर’ में मैं एक लड़की की उम्र…..उम्र की उलझनों के साथ चलती हूँ। ख़ानदान, तालीम, मुहब्बत, नौकरी, आज़ादी…..सब कुछ किसी नक़्शे की सीधी सड़कों पर नहीं, इक भटकते हुए शहर की पेंचीली गलियों में।

उनकी नज़र यहाँ महज़ मुआशरे पर नहीं, अपने तईं भी सख़्त है। वो अपने क़िरदारों को पिंजरे से निकलने के लिए उकसाती हैं, मगर उन्हें खुली छत के चक्कर और उनकी चुभन भी दिखाती हैं। यह उपन्यास किसी नारे का पोस्टर नहीं, एक जिंदा औरत की धड़कन है। उसमें उधम है, गुलगपाड़ा है, पसोपेश है, थकन है, मगर सरेंडर नहीं। और यही इस्मत आप का असल कमाल है। वो स्याह-सुफेद की दुनिया में किसी भी ‘अबसोल्यूट’ को हुक्म नहीं देतीं। वो धूसर में रोशनी के धब्बे ढूँढ़ती हैं और उन धब्बों को सलीके से सजा देती हैं, ताकि हम अपनी आँखों में सजे तहज़ीबी काजल को पोंछकर देखें।

उनका लहजा अदबी अकड़ से बेपरवाह है। ना किसी तख़य्युल (कल्पना) की लम्बी चोग़ापोश परेड, ना कोई बेशुमार आलंकारिक आब-ओ-ताब (चमक दमक)। जो कुछ है, वही ज़ुबान बन उठती है। रसोई की खटखट, दाल के अदहन की भाप, आँगन में ठंडी पड़ती हँसी, चौखट पर टिके मौन की चोट~ये सब उनकी तहरीर में चुपचाप नहीं रहता। ये बोलता है, ठठाकर हँसता है, कतराकर तबस्सुम (मुस्कुराहट) बिखेरता है और तंज़ की बारीक हँसी में खिलखिलाकर भी बहता है।

वो फ़ारसी तहज़ीब की नफ़ासत जानती हैं, मगर देसीपन की खुरदुरी सच्चाई से इश्क़ करती हैं। उनकी नस्र की जुबान में मिर्च का स्वाद और मुल्तानी मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू साथ-साथ आती है। और यही मेल पाठक के तालू पर सच का ज़ायका छोड़ देता है। थोड़ा कड़वा, थोड़ा तीखा, लुत्फ़अंदोज़ और यादगार।

मैं यह मानती हूँ कि इस्मत आपा की कलम कभी-कभी इतने जोश से बहती है कि किनारे टूटने लगते हैं। कुछ अफ़सानों में गुस्से की आँच इतनी तेज़ हो जाती है कि नफ़ासत का उबाल उधर ही उड़ जाता है। कुछ जगहों पर जुमलों की कतर-ब्योंत इतनी सख़्त कि जैसे कैंची ने कपड़ा सीने से पहले ही उसके धागे खोल दिये हों। मगर यह कमी भी उसी ज़ुरअत की बहन है, जिसने उन्हें इस्मत आपा बनाया। वो अगर इतनी ही संजीदा और मुतमअन्नी (आशावान)लिखतीं, तो शायद वही ‘तमीज़’ उनके सच को खा जाती। उनकी शिद्दत बला की है और उसी शिद्दत की वज़ह से कभी-कभी क़िरदार एकाएक नसीहत में बदलने को होते हैं, मगर फिर इस्मत आपा कोई छोटी सी हरकत, कोई आधा सा मुहावरा, कोई तिरछी मुस्कुराहट डाल कर उन्हें फिर से इंसान बना देती हैं।

उनके करीब ‘औरत’ एक मुद्दआ नहीं, एक जीती जागती दुनिया है। ख़्वाहिशात की, हसद की, डाह की, हिम्मत की और सबसे बढ़कर अपने ज़िस्म और रूह पर हक़ की।

मैं उनके फ़िल्मी तज़ुर्बे को भी उनकी रग-ए-सुख़न (लिखने में विशेष योग्यता के अर्थ में) में महसूस करती हूँ। सीन कट्स की तरह चलती बयानी, फोकस बदलते ही म’आनी बदल जाना, क्लोज़ अप में भावों का खुलना और बैकग्राउंड में मुआशरे का हल्का सा शोर।

उन्होंने परदे पर कहानी देखी और कहानी में परदा उठा दिया। उसी से उनकी नज़र में एक जुदा क़िस्म की मिज़ाहियत (हास्य भाव) आई। हँसी, जो क़िरदार का पर्दाफ़ाश नहीं करती, बल्कि उसके भीतर की विडंबना को उजागर करती है। उनका तंज़ बिछौने के नीचे रखी ईंट नहीं, माथे पर रखा बुख़ारनाप थर्मामीटर है। बिलकुल सही और सटीक।

यही सटीकपन उस दौर की तरक्क़ी पसंद तहरीक (प्रगतिशील आंदोलन) में उनका अलग क़द तय करता है। वो इज़हार-ए-ख़्याल में ख़ालिस भी हैं और बहस में लचकदार भी हैं। पार्टी लाइन की सख्ती से बचकर इंसान की नब्ज़ थामे रखती हैं।

उनकी औरतें महज़ माज़लूम बेग़मात नहीं हैं, वे चालाक भी हैं, मासूम भी हैं, ख़ुदगर्ज़ भी हैं और शफ़क़त आग़ीन (दया भाव से भरी हुई) भी हैं। उनके हाथों में झाड़ू है, तो ज़ेहन में सवाल उगे हुए हैं। उनकी देह पर समाज की शिकनें हैं, तो आँखों में अपनी तरह की चमक पसरी है।

‘चौथी का जोड़ा’ जैसी कहानियाँ यह समझाती हैं कि रिवायत कैसे कपड़े की तरह पहनी भी जाती है और उतारी भी। कैसे इज़्ज़त का नाप किसी और के फ़ीते से नहीं लिया जा सकता।

‘गैंडा’ जैसे अफ़सानों में निचले तबक़े की औरत का क़द किसी ऊँचे मेहंदीदार हाथ से बड़ा हो जाता है। वो साहिबों की दुनिया को अपनी क़िस्म-क़िस्म की ज़बानों से चीर देती है।

और फिर, कहीं किसी मोड़ पर ‘मैं’–यानी इक अदनी सी पाठिका–अपने को उन क़िरदारों की बगल में बैठी पाती हूँ। हम दोनों एक दूसरे को पहचान लेते हैं। हम दोनों एक दूसरे की हँफनी में अपनी-अपनी हाँफ सुनते हैं।

उनकी ख़ुदनिगाराना रूदाद (आत्मकथात्मक बयान) में जो बेबाक़ खिलंदड़पन है, वह मुझे बताता है कि इस्मत आपा के लिए याद भी एक मैदान-ए-जंग थी। वो अपने ही फ़ैसलों के कॉलर पकड़ कर हँसती भी हैं और उन्हें बचाती भी हैं। किसी दोस्त पर मुहब्बत से तंज़ कसती हैं, किसी दुश्मन का शुक्रिया भी कर लेती हैं कि उसने उनकी ज़ुरअत को धार दी।

यह जो ख़ुद पर मुस्कुरा लेने का सलीका है, यह अदब में कम देखने को मिलता है। इसी से उनका इंतिक़ादी (आलोचनात्मक) बकौल-ए-ख़ुद उसूल पैदा होता है–‘कहानी वहाँ से शुरू करो, जहाँ दर्द ने पहली आवाज़ दी हो और वहीं ख़त्म करो, जहाँ पाठक अपनी आवाज़ पहचान ले।’ और इस उसूल की गूँज उनकी हर सतर में सुनाई पड़ती है।

कभी-कभी उनके मर्द क़िरदार एक आध स्ट्रोक में बनते हैं गोया किसी जल्दबाज़ मुसव्विर (चित्रकार) ने स्याही की मोटी लकीर चला दी हो। औरत की दुनिया को तराशने के शौक़ में मर्द की दुनिया की पेचीदगी कम दिखाई देती है। यह एहतिराज़ (विरोध) वाजिब तो है, मगर साथ ही यह भी देखती हूँ कि इस्मत आपा का निशाना मर्द नहीं, मर्दाना निज़ाम है। वो किसी एक शख़्स की लताड़ नहीं लगातीं, बल्कि उस हवा की जाँच करती हैं, जिसे साँस में मिलाकर हम सब किसी न किसी दिन जालिम बन बैठते हैं। उनकी तन्क़ीद (आलोचना) किसी इबारत का कटघरा नहीं, एक आईनाख़ाना है, जहाँ हर चेहरा अपने साथ उस हवा का धब्बा भी लिए खड़ा होता है।

आज उनकी सालगिरह पर मैं उन्हें किसी मीनार की तरह दूर से सलाम नहीं कर रही हूँ। मैं उनके कमरे की चौखट पर बैठकर अपनी रगों की थकान उनके अफ़सानों के तकिये पर रख रही हूँ। उनकी तहरीरों ने मुझे सिखाया है कि सच की मर्यादा, शोर की तरबियत से नहीं, हौसले की ख़ामोशी से बनती है।

कि औरत की आवाज़ को ऊँचा करने से पहले उसे गाढ़ा करना ज़रूरी है। कि किसी ‘लिहाफ़’ की सलवट में छुपी आँच को नाम देना, किसी फ़तवे की तौहीन नहीं, किसी इंसान की तौक़ीर (सम्मान) है।

वो बताती हैं कि अदब अगर दहलीज़ से डरता है, तो दहलीज़ के इस पार भी मरा रहता है और उस पार भी। और अगर अदब दहलीज़ को दहलीज़ ही नहीं मानता, तो वही ज़िंदा रहता है, वही जिंदा रखता भी है।

मैं अपनी इस मुहब्बत को किसी मख़मली लफ़्ज़ में नहीं बाँध सकती, मगर यह ज़रूर कह सकती हूँ कि इस्मत चुग़ताई आपा ने मुझे मेरी आवाज़ की नब्ज़ थमाई है। उन्होंने मुझमें वह हिम्मत बोई है कि मैं अपनी देह पर अपना हक़ लिख सकूँ, अपने ज़ेहन में अपने सवाल उगा सकूँ और अपनी रूह के सामने अपनी ही गवाही दे सकूँ।

वो मेरी अदीबा भी हैं, मेरी हमराज़ भी हैं, मेरी उस्तानी भी हैं और मुख़ालिफ़ (विरोधी) भी हैं, क्योंकि जहाँ मैं झूठ बोलती हूँ, वहाँ उनकी कलम मुझे पकड़ लेती है।

और यही उनका सबसे बड़ा फ़न है। वो हमें पढ़कर छोड़ नहीं देतीं, वो हमें पढ़ना सिखाती हैं। मेरे लिए इस्मत चुग़ताई आपा का मतलब है~एक ऐसी आईनाबाज़ दुनिया, जहाँ मैं बिना किसी लिहाफ़ के, बिना किसी तमीज़ के डर के, अपने आप को देख सकूँ और कह सकूँ कि हाँ, यही हूँ मैं…..और अगर तुम्हें नागवार गुज़रे, तो मेरी आवाज़ की सिरे से आदत डाल लो।

(~इकोज़ ऑफ़ सबा)


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