मिर्जा साहब मेरी प्रतीक्षा में थे। मेरे जाते ही खाना परोसा गया। मिर्ज़ा साहब के लिए इतना कम और सादा कि जैसे बुलबुल के आँसू और मेरे लिए ढेर सारा और नाना प्रकार का।
खाने के बाद पीरो मुर्शिद ने आँगन में धूप से कुछ हटकर अपना पलंग बिछवाया, मेरे लिए एक छोटी सी चौकी बिछाई गई। भिंडा ताज़ा किया गया। मिर्ज़ा साहब अपना पेचवान कभी-कभी मुझे गुड़गुड़ाने के लिए देते।
जब भिंडे का आनन्द ले चुके तो मिर्ज़ा साहब ने फ़रमाया, “हाँ साहब, अब कहो, अब बिलकुल एकान्त है।” मैंने किताबों की गठरी खोली और एक किताब उनकी तरफ बढ़ाकर कुछ कहने ही वाला था कि उन्होंने किताब खोलकर कहा, “ये तो मेरा ही दीवान है। मैं इसे लेकर क्या करूँगा?”
मैंने अर्ज किया, “इसकी हाजिरी का उद्देश्य। प्रार्थी हूँ कि हुजूर जिल्द बँधी हुई अपने दीवान की इन प्रतियों पर अपने दस्तखत से नवाज़ दें। मैं इन्हें दोस्तों को भेंट करूँगा। दिल्ली का तोहफा इससे बढ़कर क्या होगा।”
“मगर भाई मैं दस्तखत क्यों करूँ? ये किताबें मेरा माल तो हैं नहीं।”
मैंने विनती के लहजे में कहा, “अंग्रेज़ साहिबान आलीशान के यहाँ लेखक की क़द्र करने का ये तरीका चलन में है कि किताब पर उसके लेखक ही से दस्तखत करा लेते हैं और उसे बड़ा क़ीमती तोहफा क़द्र समझने वालों के लिए जानते हैं।”
मिर्जा साहब हँसे, इरशाद हुआ, “हम तो ये जानते थे कि लेखक के प्रति अपनी क़द्र जाहिर करने के लिए उसे सात बल्कि चौदह कपड़ों के ख़िलअत पहनाते हैं, इक्कीस नग-जवाहरात की माला और सात नग जवाहरात का सरपेच प्रदान करके गले और सर की शोभा बढ़ाते हैं। आध रुपए की किताब मोल लेकर उस पर लेखक के दस्तखत लेना और उसे लोगों में बाँटना, ये क़द्र पहचानने का भला कौन-सा तरीका है? खैर लाओ, तुम कहते हो तो अपनी मुहर किए देता हूँ। संयोग से अभी कुछ दिन हुए बारह सौ अठहत्तर हिज़री में नई मुहर बनवाई है।”
ये कहकर उन्होंने दारोगा कल्लू से क़लमदान माँगा, हर किताब पर अपने कर कमलों द्वारा मुहर की। चाँदी के नगीने की चौकोर मुहर थी। फिर कुछ सोचकर एक किताब पर फ़ारसी में लिखा…
बरखुरदार वेणी माधव सिंह ‘रुसवा’
ऐ कि तुम्हारे आने से मेरा दिल खुश हुआ
असदउल्लाह खान ग़ालिब
लिखा
16 रजब 1279
फ़ारूक़ी साहब ![]()
सवार और दूसरी कहानियाँ संग्रह से अंश
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित

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